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रात्रिभोजन के संबंध में

Prashant Chourdia by Prashant Chourdia
March 17, 2017
in जैन जानकारी
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रात्रिभोजन का त्याग मोक्षमार्ग के पथिक के लिए तो आवश्यक है ही, परंतु उसके आधुनिक विज्ञान – अनुसार भी अनेक लाभ हैं। जैसे कि रात्रि 9 बजे शरीर की घडी (BODY CLOCK) अनुसार पेट में रहे हुए विषमय तत्वों की सफाई का (DETOXIFICATION) समय होता है, तब पेट यदि भरा हुआ हो तो शरीर वह कार्यं नहीं करता (SKIP करता है) अर्थात् पेट में कचरा बढ़ता है परंतु जो रात्रिभोजन नहीं करते, पाचन 9 बजे तक हो जाने से उनका शारीर विषमय तत्वों की सफाई का कार्य भले प्रकार से कर सकता है ।  दूसरा, रात्रि में भोजन के पश्चात दो से तीन घंटे तक सोना निषिद्ध है और इसलिए जो रात्रि में देर से भोजन करते हैं, वे देर से सोते है परंतु रात्रि में ग्यारह से एक बजे के दौरान गहरी नींद (DEEP SLEEP) लीवर की सफाई और उसकी नुकसान भरपाई (CELL REGROWTH) के लिए अत्यंत आवश्यक है। जो कि रात्रिभोजन करनेवाले के लिए शक्य नहीं है। इसलिए यह भी रात्रिभोज़न का बडा नुकसान है । आरोग्य की द्रष्टि से इसके अतिरिक्त भी रात्रिभोजन त्याग के दुसरे अनेक लाभ है ।

आयुर्वेद , योगशास्त्र और जैनेतर दर्शन के अनुसार भी रात्रिभोजन निषिद्ध है। जैनेतर दर्शन में तो रात्रिभोज़न को मांस खाने के समान और रात्रि में पानी पीने को खून पीने के समान बताया है और रात्रिभोजन करनेवाले के सर्व तप-जप-यात्रा सब व्यर्थ होते हैँ और रात्रिभोजन का पाप सैकडों चंद्रायतन तप से भी नहीं घुलता – ऐसा शास्त्रों में बताया है।

जैनदर्शन के अनुसार भी रात्रिभोज़न का बहूत पाप बताया है। यहाँ कोई ऐसा केहे कि रात्रिभोजन त्याग इत्यादि व्रत अथवा प्रतिमाएँ तो सम्यग्दर्शन के बाद ही होती है तो हमें इस रात्रिभोज़न का क्या दोष लगेगा ? तो उन्हें हमारा उत्तर है कि रात्रिभोजन का दोष सम्यग्दृप्टि की अपेक्षा मिथ्यादृप्टि को अधिक ही लगता है; क्योंकि मिथ्यादुप्टि उसे रच-पच कर सेवन करता (होता) है, जबकि सम्यग्दृप्टि को आवश्यक न हो, अनिवार्यता न हो तो ऐसे दोषों का सेवन ही नहीं करता और यहि किसी काल में ऐसे दोषों का सेवन करता है तो भी भीरुभाव से और रोग की औषधिरूप से करता है;  नहीं कि आनंद से अथवा स्वच्छदता से।

इस कारण किसी भी प्रकार का छल किसी को धर्म शाश्त्रों में से ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि धर्मशास्त्रों में प्रत्येक बात अपेक्षा से कही होती है। इसलिए व्रत और प्रतिमाएँ पंचम गुणस्थान में कही हैं, उसका अर्थ ऐसा नहीं निकालना चाहिए कि अन्य कोई निम्न भूमिकावाले उसे अभ्यास के लिए अथवा तो पाप से बचने के लिए ग्रहण नही कर सकते। बल्कि सबको अवश्य ग्रहण करने योग्य ही है, क्योंकि जिसे दुःख प्रिय नहीं है – ऐसे जीव, दुःख के कारणरूप पापों का किस प्रकार आचरण कर सकते है ? अर्थात् आचरण कर ही नही सकते।

अस्तु!

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